रात तिमिर था बहुत ही गहरा
तिस पर रहता भय का पहरा
गंगा तुम भी शिथिल पड़ी थी
वेग मानो मन्द नब्ज सा

रुग्ण थी जैसे मेरी श्वास मति
लहरों की भी थी मन्द गति
दोंनो का एक ही हाल था
पर प्रतीक्षा का है दोनों को अभ्यास
और निरन्तर चलते रहना है नियति हमारी

इलाज के मोर्चे पर जीत करने को हासिल
दोनों ही रहेगी कटिबद्ध
तुमने अच्छे से सिखाया है
संयम और संकल्प की होती है परीक्षा
प्रतिकूलता में भी रखना था मनोबल
सब कुछ तो बताया था

बस तुम्हें धरा स्मृति में मैंने
चिंतन का प्रयास किया
मन की मथनी चलती रही और
मक्खन की डली सा सूर्य उग आया!

मधुर कलरव गान से
भीतर के प्रकाश से
उज्ज्वल सा धुला पुछा सा
अब दोनों का चेहरा
विषाद कहीं डूब मरा है
अब तुम्हारी लहरे और मेरी मुस्कान
मानों दोनों मे होड़ है!

दोनों की खिलखिलाहट से
देखो सूर्य भी दमक रहा है!
और गान गूंज रहा है-

है तिमिर घना तो क्या सुबह उगाने के हुनर भी है कमाल का!

डॉ मेनका त्रिपाठी

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