प्रकृति के साथ हमारा संबंध विश्वास योग्यता और सामर्थ्य का प्रतीक है। जब हम प्रकृति की देखभाल नहीं करते, तो हम स्वयं को भी बिगाड़ते हैं तो असंतुलन की स्थिति पाती हूँ और असंतुलन विनाश की सूचना देता है जैसे तूफान या आपदा आने से पूर्व जीव जन्तु व्याकुलता से भर जाते हैं ऐसी ही छटपटाते शब्द अभिव्यक्ति के लिए आतुर हो उठते हैं!

प्रकृतिवादी लेखक संघ की संयोजिका बनते ही सबसे पहला प्रश्न यह था कि वाद किसी कम्युनिज्म का हिस्सा तो नहीं मैं मुस्कुराई क्योंकि वाद तो विचारों को कहते हैं विचार कितने प्रभावशाली है यह आने वाला वक्त तय करता है आप वर्तमान में इसे बढ़ाने से नहीं रोक सकते यह समय संकट का समय है! यह आध्यात्मिकता, संवेदनशीलता, और जिम्मेदारी की भावना को जगाने का समय है। हमें प्रकृति के साथ संतुलन और संवेदनशीलता में रहकर अपने आप को पुनः जोड़ने की जरूरत है। इस दिशा में कदम उठाने के लिए, हमें संज्ञानबद्धता और साझेदारी का संकल्प लेना होगा, ताकि हम समृद्धि और समानता के प्रति अपने वचनों को साकार कर सकें।

गीता पढ़ सुन तो कर्म योग से ज्यादा वैराग्य हो जाता है और ज्ञान अधिक समझाने की चेष्टा नहीं करता वह सिर्फ समझता है लेकिन यदि व्यक्ति सिर्फ आत्मा मुक्ति का प्रयास करता है तो क्या स्वार्थी नहीं? क्या सोते हुए को जगाना एक कर्म नहीं? इस कर्म और ज्ञान वैराग्य के बीच की स्थिति में खुद को मैं कई बार पाती हूं! आज गंगा नगरी में तिल धरने की जगह नहीं है, आचमन के लिए जल लाने के लिए भी विचार करना पड़ रहा है, बचपन ऐसा नहीं था बल्कि हर साल कुछ न कुछ हमारा हम से छीन रहा है!

सांसारिक लोगों के दृष्टिकोण से देखा जाए तो आहार, विहार, निद्रा मिथुन इन चार सुखों के पीछे जो भाग दौड़ मची है, क्या एक भयंकर असंतुलन की स्थिति नहीं आ गई है? इस असंतुलन की स्थिति के कारण सारा का सारा वातावरण दूषित हो चुका है स्वयं सुधार के द्वारा क्या हम स्थिति सम्भल सकते हैं और संतति के लिए क्या भविष्य है? क्या यह एक गंभीर विषय नहीं?

जब हम प्रकृति संरक्षण की बात करते हैं तो लोग पेड़ पौधे वनस्पति नदियां केवल यही रूप देख पाते हैं, अभी गंगा स्नान के दिन अकेली दादी का कत्ल पोती द्वारा कराना कितना क्रूर है? क्या समझाना अपराध है, इत्यादि प्रश्न विचलित करने वाले है कि शहरी चमक दमक और अधिक भोग विलास से उब मनुष्य मन प्रकृति की गोद चाहता है! हरिद्वार में आई भयंकर भीड़ और पर्यटन का भौंडा नृत्य देख रही हूं, लेकिन एक दर्शक बनकर लेखक कभी नहीं रह सकता! प्याऊ के नाम पर प्लास्टिक के गिलास कूड़ा कचरा, उन्माद गंगा में लाश, खनन, पहाड़ों पर लगी आग इन सबसे व्याकुल हूँ!

सचमुच मैं अंधकार की गहन अतः प्रभाव को देख तो पा रही हूँ परंतु यह प्रभाव मुझे सन्न न कर दे मैं इस अपने ऊपर हावी नहीं कर सकती! मानसिक रूप से उन लोगों का साथ दे जिनके कदमों में सुबह बिछी रहती है!

आशा वादिता के साथ-साथ मेरा एक ठोस विश्वास है कि हमारा ईश्वर में, मनुष्यता में, प्रकृति में और आत्मा में विश्वास होना चाहिए! विकट समस्या जब भी चुनौती बनकर मेरे सामने आती है तो मेरी अंतरात्मा कुछ करने के लिए व्याकुल होती है उसे अपनी सार्थकता की सिद्धि के लिए तत्काल अवसर देना कर्तव्य समझती हूँ!

लिखकर कर्तव्य निष्ठा और साधना द्वारा सफलता की दिशा में बढ़ना और सोते हुए को जगाना यही गुण स्वयं को प्रस्तुत करना मेरा उद्देश्य है!

मेनका त्रिपाठी

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *