गंगा तुम्हारी नगरी में
लगी हुई है भीड़
नगरी नगरी न रही
कहते इसको तीर्थ
कुकर्मों की पोटली
लोग तुममे घोलेगे
लगा के डुबकी जयकारें
झूठे मुख से बोलेगे
माँ हो तुम
कर दोगी क्षमा फिर से
बिगाड़ कर सन्तान
तुम सदा चाकरी ही तो करोगी!
देख रही हूँ
घाट कुशा पर
अफर चुके हैं झुंड पशु के
गटर अपशब्द कीचड़ लिए
कर्ण तुम्हारे उगल रहे हैं!
आटे के पिंड लिए
सर घुटा कर बैठे हैं घुटे हुए लोग
कौए अनवरत बोल रहे
संग पंडित भी उचर रहे हैं!
मोटी दक्षिणा और भोज्य देकर इन्हें
हो जायेगे निवृत्त यजमान तो
खायेंगे चंद्रकला फिर देसी घृत की
जीभ होंठो पर फ़ेर रहे हैं
खुशबु कचौड़ी की हवन की सुगंध मे
बाधा लगातार डाल रही है, खा पीकर
लगाकर ढेर प्लास्टिक के कचरे का
तीर्थ यात्री लौट रहे हैं!
काम सरकार का है
उठाए अल्कोहल और सोडे की बोतल
और पुण्य कर्म का लाभ लिए
फिर से पाप कमाने को
इस नगरी की छाती पर
लोट रही है, लौट रहे है
जू सरीखे प्रदुषित वाहन झुंड
तुम अनदेखी कर, और कर अनसुना मेरी बकबक को
काल, समय सी बह रही हो, संयम मुझे सिखाती सी!
डॉ मेनका त्रिपाठी